Wednesday, September 30, 2009

आगाज़ !!!

आओगी जब जिंदगी मैं...

सुबह खिलखिलाने लगेगी...
शाम सवांर जाने लगेगी....
रात मचल जाने लगेगी...
हवा उमड़ जाने लगेगी....
खुशी नज़र आने लगेगी....
बदरी बरस जाने लगेगी...

आओगी जब जिंदगी में तुम ...

...भावार्थ

Thursday, September 24, 2009

जिद्दो-जहद !!!

आज खयालो में तुझको लिए...
पेन को साधे हुए...
डायरी के पन्नो को निहारता...
अपनी बालकनी में बैठा रहा...
सोचता रहा क्या लिखूं...
असल में सोचता रहा ...
की आख़िर क्या क्या लिखूं...
सुहानी यादो के अफ़साने ...
अल्फाजो में बिखेरूं कैसे....
तुझसे जुड़ी सौगातों को...
मन के धागे से बिखेरूं कैसे...
तेरी मूरत एक एक हर्फ़ बनकर कैसी लगेगी...
सादगी तेरी स्याही में घुल कर कैसी लगेगी...
नजाकत एक एक अल्फाज़ पे छायेगी...
तेरी हर एक अदा मेरे लिखने में आएगी...
मैं संभल पाऊँगा...
शायद यही सोच कर मैंने कलमा रख दी...
सोचता हूँ तू कविता बनी रहे ...
बस मेरे ख्यालों में महफूज़ रहे....
बस मेरे लिए...

...भावार्थ

Monday, September 21, 2009

मेरे साथ चल !!!

ये जिंदगी है कुछ एक पल...
जो तू चल सके तो मेरे साथ चल...

तेरी बाहों में हो जो मेरा जहाँ...
गम का वहां फ़िर न होगा निशाँ..

जिंदगी का है खाब तेरा साथ हो...
जगमगाते से दिन हो चांदनी रात हो ...

तुझसे शुरू हो मेरा सिल सिला...
फ़िर जिंदगी से न मुझको गिला...

तू फ़िर आज कह दे मेरी चाह है...
मंजिल तू ही शोना तू ही राह है...

ऐसा लगता है जैसे न आएगा कल...
जो तू चल सके तो मेरे साथ चल...

...भावार्थ

Saturday, September 19, 2009

आस !!!

पीली मिटटी में कपास उगाते लोग...
शहरो में गावं सी आस लगाते लोग...

दो रूह बनाती मोहब्बत की दुनिया को...
उसमें भी क्या क्या नुक्स जताते लोग...

खफा है चंद अपनोंसे भरी इस दुनिया से ...
खाली भीड़ की तरफ़ हाथ बढाते लोग...

उनकी लाज शर्म को भूल चुके है सब...
मिटटी से बस अंधी प्यास बुझाते लोग...

पीली मिटटी में कपास उगाते लोग...
शहरो में गावं से आस लगाते लोग...

...भावार्थ

Friday, September 18, 2009

र०-ब-रू !!!


समय मेरा कांच सा बिखर चुका है ...
बिखरे रंग बिरंगे कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू कराते है...
कभी संजीदगी को टटोलते...
तो कभी तन्हायी को उकेरते....
कभी छलकती प्यास को देखते...
तो कभी पलते मेरे खयालो को देखते...
मेरे बिखरे समय के कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू करते हैं...
यु तो होंसले की गठरी मैंने सीने से बाँध रखी है...
जो बर्फीली रात में धडकनों को गर्म रखती है...
और मेरे बचपन की रातो में संजोये सपनो की चाह...
मेरे इरादों को नए आयाम देने का अरमान रखती है...
मैं राह-ऐ-मंजिल पे गिर गिर कर संभल रहा हूँ ...
फ़िर भी उम्मीद की बैसाखी लिए नंगे पाँव चल रहा हूँ ...
कभी कभी सब थमजा जाता है जो बस दौड़ता रहता है...
कोई तो है जो मेरी राहो को आ कर तोड़ता रहता है...
में भी बिखर जाता हूँ समय के साथ...
फ़िर मेरे बिखरे समय के टुकड़े ...
मुझे मेरे अक्सों से रू-ब-रू कराते हैं...
और में ख़ुद को टटोलता , अध्-बुनी में ख़ुद से बोलता...
चला जा रहा हूँ उस राह पे जिसका नामो निशाँ नहीं है...
एक मूरत है उस मंजिल की वो भी लफ्ज़-ऐ-बयाँ नहीं है...
वो भी मगर बिखरी पड़ी है समय के टुकडो के इर्द-गिर्द...
वही बिखरे हुए कांच के टुकड़े...
मुझे मेरे कई अक्सों से रू-ब-रू कराते हैं...

...भावार्थ

Monday, September 7, 2009

भावार्थ

सुख के किनारे, गम के ये धारे....
सुख के किनारे, गम के ये धारे....
चली जा रही नदिया किसके सहारे....

सुख के किनारे ,गम के ये धारे...

शम्मा रात की बुझ सी गई है...
चांदनी सी थी वो बुझ सी गई है...
कहाँ जायेंगे ये अम्बर के तारे....
सुख के किनारे गम के ये धारे...

रास्तो में बिखरे हैं मंजिलों के निशाँ....
बुत बन गए हैं जो थे कभी कारवां...
दिखाई देते जिंदगी से हारे...
सुख के किनारे गम के ये धारे...

अपनों के तिनके बिखरने लगे हैं...
एक एक कर सब राह बदलने लगे हैं...
अपनी तन्हाई से इलने लगे हैं ये सारे ...
सुख के किनारे दुःख के ये धारे...

सुख के किनारे, दुःख के ये धारे...
चली जा रही नदिया किसके सहारे ...

...भावार्थ

Wednesday, September 2, 2009

धुआं नहीं उठा !!!

कई दिन गए, हफ्ते गए...
रातें गई शामे गई...
मगर ये धुआं नहीं उठा...
ऐसा नहीं है की आग बुझ गई है...
ऐसा भी नहीं है की ख्याल की आंच नहीं है...
जेहेन में बेचैन सवालों का सेलाब नहीं है...
ये जो अल्फाजो के उपले जो गीले से थे ...
थोड़ा वक्त ले रहे थे सुलगने में..
मैंने उनमें एहसास का तेल छिड़क दिया है...
अब देखना कैसे धधकते हैं ये ...
और कैसे उठता है धुआं...
मेरे दिल के कौने से कोई नज़्म बन कर...

भावर्थ