Thursday, December 22, 2011

बोधि का बोध !!!

साढ़े तीन हाथ की काया...
कोस कोस उसकी है माया...

उठ गिर रही सांस अनाया...
बोलो उसको कौन है जाया...

रोम रोम में राम समाया...
पल पल बदल रही है काया...

जिसने भीतर ध्यान लगाया...
उसने नश्वर सब जग पाया...

ये संवेदन जो नर कर पाया...
ये बोध हुआ तो बुद्ध कहलाया...

भावार्थ...



Wednesday, December 21, 2011

मौला !!!

उस अंजुमन की तलाश है जहाँ निखत तेरी हो...
लता तेरी हो फूल तेरे हो  सल्तनत तेरी हो...

हर एक जर्रा हो तुझसा जहाँ ...
हर एक बाब हो तेरा गुलिश्तां...
हवा तेरी हो जमीं तेरी हो मल्कियत तेरी हो...
उस अंजुमन की तलाश है जहाँ निखत तेरी हो...

भँवरे बजाते हों शंख जहाँ...
कोयले सजाती हो महफ़िल वहां....
ओस तेरी हो धुंध तेरी हो रवायत तेरी हो...
उस अंजुमन की तलाश है जहाँ निखत तेरी हो...

हर जुबान पे बस नाम तेरा हो...
आगाज़ तेरा हो अंजाम तेरा हो...
सीरत तेरी हो, सूरत तेरी हो शख्शियत तेरी हो...
उस अंजुमन की तलाश है जहाँ निखत तेरी हो...

भावार्थ...

Monday, December 19, 2011

तुम रहने ही दो !!!

तुम रहने ही दो !!!

क्या हुआ जो तुमने एक वादा किया...
मेरे साथ मोहब्बत का इरादा किया...
सह न पाओगी दर्द-ओ-गम...
चल न पाओगी दो कदम...
तुम रहने ही दो...

तन्हाईयाँ हैं इसमें हज़ार...
करना पड़ेगा खुद को निसार...
निभा न पाओगी एक कसम...
चल न पाओगी दो कदम...

तुम रहने ही दो...

टूट कर रेत सा बिखरना पड़ेगा...
ज़माने के तल्ख़ को सहना पड़ेगा...
भर न पाओगी चाक-ओ-जख्म...
चल न पाओगी दो कदम...
तुम रहने ही दो...


बन न पाओगी तुम हमदम...

तुम रहने ही दो !!!

भावार्थ...

Saturday, December 17, 2011

लकीर !!!

उस रोज...
मैं कितनी खुश थी...
मुझसे तेज मेरे कदम चल रहे थे...
उसके आने की ख़ुशी जैसे चुम्बक सी थी...
मैं उसी पुराने लिबास में निकल पड़ी उसके घर की तरफ...
खबर मिली की तुम लन्दन से लौट आये हो...
कितनी बावरी थी मैं भी...
ये भी न सोचा की वक़्त से क्या कुछ नहीं बदलता...
लोग भी तो बदल सकते हैं...
तुम भी तो बदल सकते हो...
चलते क़दमों के साथ खो गयी बीते दिनों में...
वो दिन जब दो लौ एक दिए में जली थी...
एक सार थी रूह दो लोगों की...
उस मद्धम सी पीली  शाम को...
अपने हाथ में हाथ लिए तुमने कहा था..
इन् लकीरों में एक लकीर इश्क की होती है...
यकीं दिलाने को तुमने हमदोनो के हाथ एक ब्राहमण को दिखाए...
उसकी बात ही तो सच मान बैठी थी मैं..
लो उसका घर आ गया...
मैं भी चली आई उसके दर तक एक बदहवासी में...
दस्तक दी तो एक लड़की ने दरवाज़ा खोला....
मैंने कहा  "करन" है ?
उसने मुड़ कर आवाज़ दी....
"हबी" देखो तुमसे कोई मिलने आया है, और चली गयी अन्दर....
अगले दो पल मैं वहां क्यों रुकी मुझे नहीं पता...
पत्थर बन कर शायद उस पत्थर को देखने जिसे मन में पूजती रही...
या उस जलती लौ  को देखने जिसने इस लौ को बुझा दिया था...
"करन" आया और बोला "तुम"...
मेरी साँसे जैसे भीतर ही भीतर हांफ रही थी...
लफ्ज़ जैसे होठो के सेहरा में गुम थे...
और आँखें जैसे फूट पड़ने को बेताब थी..
कदम लौट जाना चाहते थे मगर दिल मजबूर था कम्बखत...
वो नज़र नहीं मिला पा रहा था...
कुछ संकुचा के बोला "तुम अन्दर नहीं आओगी"
वो भूल गया था शायद मैं तो यही सोचती थी की में उसके अन्दर ही कहीं हूँ....
मैं रुक नहीं पायी और कहा "तुमने ऐसा क्यों किया" और रो पड़ी....
वो मेरे आंसूं न देख पाए दौड़ पड़ी उलटे कदम उसके दर से.,...
और सोच रही थी उस ब्राहमण की बात...
उसने कहा था तुम्हारी लकीरें मिलती सी है...
वो सच था शायद..
मगर मैं भूल गयी थी ...
लकीरों का खुद का वजूद कुछ नहीं होता......
मेरी मोहब्बत पत्थर पे लकीर थी ... 
"और"
उसकी मोहब्बत समन्दर पे लकीर थी...

भावार्थ...

Thursday, December 15, 2011

इब्तिदा-ए-इश्क !!!

कुछ लिखने की चाहत हो तो  हर्फ़ बदल जाएँ...
ब्रुश से रंगने की चाहत हो तो रंग बदल जाएँ...
अजनबी से मिलने की चाहत हो  तो   ढंग बदल जाएँ...
तो समझो इब्तिदा-ए-इश्क है  ...

उसकी खुशबू  तुम्हें खुद के पेहरन में आने लगे...
उसकी तपिश का एहसास खुद कि बाहों में आने लगे...
उसका अंदाज़-ए-बयाँ तुम्हें अजनबी में भी नज़र आने लगे...
तो समझो इब्तिदा-ए-इश्क है...

उसके जाने के बाद लगे कि एक बार बस वो फिर आये...
झूठे मूठे सपने ही सही उनको दिखाने वो फिर आये...
खुद के होने का यकीं दिलाने को लगे कि वो फिर आये...
तो समझो इब्तिदा-ए-इश्क है... 

भावार्थ ...
 













मिर्ज़ा ग़ालिब !!!

इशरत-ए-कतरा है दरिया में फना हो जाना...

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना...

मिर्ज़ा ग़ालिब !!!

वो नए गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें


वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो की न याद हो...

मोमीन !!!



पुरानी आदत है उसकी...

पुरानी आदत है उसकी...


मुझे बुला कर देर से आने की ...
मुझे रुला कर फिर मनाने की...
रूठ जाऊं तो काँधे पे सुलाने की...

पुरानी आदत है उसकी...

मेरे यकीं के लिए  झूठी कसम खाने की..

मेरी नक़ल बना कर मुझे चिढाने की...
अजीब शक्लें बना कर मुझे हँसाने की...
पुरानी आदत है उसकी...

उसकी आदतें कब मेरी आदतें बन गयी..
उसकी यादें कब मेरी आयतें बन गयी...
उसकी चाहतें कब मेरी इनायतें बन गयी...

मुझे पता भी न चला...
कब साल पल बन गए...

मुझे बुद्धू बनाने की...
मुझे जीना सिखाने की...
पुरानी आदत है उसकी... 

भावार्थ...

अज़ब हालत थे मेरे...

अज़ब हालत थे मेरे...
अजब दिन रात थे मेरे...
मगर में टूटा नहीं था...
क्योंकि तुम साथ थे मेरे..
मेरे सर के तलबगारों की नज़र ऐसी उठती थी..
की लाखों उँगलियाँ थी और हजारो हाथ थे मेरे...
में पत्थर का ताबूत था उनके मंदिर में...
न दिल था मेरे सीने में न कुछ जज्बात थे मेरे...
में किसी और से क्या उम्मीद रखता...
वही गेर थे जो हालत थे मेरे...
मुझे मुज़रिम बना के रख दिया झूठे गवाहों ने...
अज़ब हालत थे मेरे...

अनजान !!!

ए थके हारे समंदर...

ए थके हारे समंदर...
तू मचलता क्यों नहीं...
तू उछलता  क्यों नहीं...
सहिलो को तोड़कर बाहर...
तू निकलता क्यों नहीं...
तू मचलता क्यों नहीं...
तेरी सहिलो पे सितम की बस्तियां आबाद है..
सहर के मेमार सारे खानमा बर्बाद है...
ऐसी काली बस्तियों को...
तू निगलता क्यों नहीं...
तुझमें लहरें हैं न मौजे हैं न शोर...
जुर्म से बेज़ार दुनिया देखती है तेरी ओर...
तू उबलता क्यों नहीं...
ए थके हारे समंदर...
तू मचलता क्यों नहीं...
तू उछलता क्यों नहीं...

कैफ़ी आज़मी !!!

Wednesday, December 14, 2011

मजाज़

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं...
क्या समझती हो  तुमको भी भुला सकता हूँ मैं...

तुम अगर रूठो एक  तुमको मानाने के लिए...
गीत गा सकता हूँ में आंसू बहा सकता हूँ मैं...

तुम की बन सक्तियो हो हर महफ़िल में फिरदौस इ नज़र
मुझको ये दावा की ये की हर महफ़िल पे छा सकता हूँ मैं...

आओ मिल कर इंकलाबी ताज़ा तर पैदा करें...
दहर पर इस तरह छा जायें की सब देखा करें...

मजाज़ !!!


Saturday, December 10, 2011

तुम्हारी याद...

तुम्हारी याद ...
जो आई मेरे दर्द के साथ....
उसकी दोस्त सी बनकर...
लहर सी थी तुम्हारी याद...
बढती गयी मेरे दर्द के साथ...
मगर रह गयी मेरे साथ...
उस दर्द के जाने के बाद...
तुम्हारी याद...

भावार्थ...

Thursday, December 8, 2011

तुम मुझे भूल भी जाओ तो हक है तुमको...

तुम मुझे  भूल भी जाओ तो हक है तुमको...
मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...

मेरे दिल की मेरे जज्बात की कीमत क्या है..
इंज उलझे उलझे ख्यालात की कीमत क्या है...
मैंने क्यों प्यार किया तुमने क्यों प्यार किया..
इन परेशान सवालात की कीमत क्या है...

तुम मुझे इतना भी न बताओ तो ये हक है तुमको...
मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...


तुम मुझे भूल भी जाओ तो हक है तुमको...

मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...
जिंदगी सिर्फ मोहब्बत नहीं कुछ और भी है...
जुल्फ-ओ-रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है...
भूख और प्यास की मरी इस दुनिया में..
इश्क ही इक हकीकत नहीं कुछ और भी है..

तुंम आँख चुराओ तो ये हक है तुमको...
मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मोहब्बत की है...

तुमको दुनिया के दर्द-ओ- गम से फुर्सत न सही...
सबसे उल्फत सही मुझसे ही मोहब्बत न सही ...
में तुम्हारी हूँ यही मेरे लिए  क्या कम है..
तुम मेरे हो मकर  रहो ये मेरी किसमत ना सही..
और दिल को जलाओ ये हक है तुमको..
मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...

तुम मुझे भूल भी जाओ तो हक है तुमको...

मेरी बात कुछ और है मैंने तो मोहब्बत की है...

साहिर लुधियानवी !!!

प्यार कभी इकतरफा होता है न होगा...

प्यार कभी इकतरफा होता है न होगा...
दो रूहों के एक मिलन की जुड़वां पैदाईश है ये ...
प्यार अकेला जी नहीं सकता...
ये जीता है तो दो में ...
मरता है तो दो मरते हैं...
प्यार एक बहता दरिया है...
झील नहीं है जिसको दो किनारे बाँध के बैठे रहते हैं...
सागर नहीं है किसका किनारा नहीं होता...
बस दरिया है जो बहता रहता है...
दरिया जैसे चढ़ जाता है ढल जाता है...
चलना ढलना प्यार में वो सब होता है...

पानी की आदत है ऊपर से नीचे की जानिब बहना...
नीचे से फिर  भाग के सूरत ऊपर उठना...
बादल बन आकाश में बहना...
कापने लगता है जब तेज हवाएं छेड़ें...
बूँद बूँद सा फिर बरस जाता है...

प्यार एक जिस्म के साज पे बजती गूँज नहीं है
न मंदिर की आरती है न पूजा है...
प्यार नफा है न लालच है...
न लाभ न हानि कोई...

गुलज़ार

न सोचा न समझा न सीखा न जाना...

न सोचा न समझा न सीखा न जाना...
मुझे आ गया खुद बा खुद दिल लगाना...

जरा देख कर अपना जलवा दिखाना...
सिमट कर न यहीं आ जाये ज़माना...

जुबान पर लगी हैं वफाओं की मुहरें...
ख़ामोशी मेरी कह रही है फसाना..

गुलों तक लगायी  है तो आसान है लेकिन...
हैं दुश्वार है लेकिन काँटों से दामन बचाना...

करो लाख तुम मातम-इ-नौजवानी...
अब नहीं  आएगा वो जमाना...

मीर ताकी मीर !!!



Wednesday, December 7, 2011

जाते जाते नज़र मिला गया वो...

बंद होठों से बोलना सिखा गया वो...
जाते जाते  नज़र मिला गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...


ठहरा हुए  दिल-ए-समंदर में मेरे...
संग-ए-उल्फत  गिरा  गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...

नूर-ए-इलाही की ख्हयिश थी ...
खायिश-ए-जिस्म जगा गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...


गुना-भाग का हुनर था हममें...
इक शौक-ए- इश्क लगा  गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...

सब को पढ़ता था किताब-ए-जेहेन...
बाब-ए-मोहब्बत सिखा गया वो...

जाते जाते नज़र मिला गया वो...


आज़ाद रूह थी 'भावार्थ' तेरी...
पैराहन-ए-इश्क उढ़ा गया वो...


जाते जाते नज़र मिला गया वो...



भावार्थ...

Tuesday, December 6, 2011

तेरी ख़ुशी से अगर गम भी ख़ुशी न हुए...

तेरी ख़ुशी से अगर गम भी ख़ुशी न हुए...
ये जिंदगी मोहब्बत की जिंदगी न हुए...

खयाल यार सलामत तुझे खुदा रखे...
तेरे बगैर घर में कभी रौशनी न हुए...

सबा ये उनसे हमारा पयाम कह देना...
गए हो जब से सुबह शाम एक न हुए...

गए थे हम भी जिगर जलवागाह-ए-गाना में...
वो पूछते ही रहे हम से बात ही न हुई...


जिगर मुरादाबादी !!!

कितना हसीन गुनाह किये जा रहा हूँ मैं...

दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ में...
कितना हसीन गुनाह किये जा रहा हूँ मैं...

मुझ से लगे है इश्क की अज़मत को चार चाँद....
खुद हुस्न को गवाह किये जा रहा हूँ मैं..

गुलशन परश्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़...
काँटों से भी निभाह किये जा रहा हूँ मैं...

मुझसे अदा हुआ है जिगर जुस्तजू का हक...
पर जर्रे को गवाह किये जा रहा हूँ मैं...

जिगर मुरादाबादी !!!


हम न नखत है न गुल हैं जो महकते जावें !!!

हम न नखत है न गुल हैं जो महकते जावें...
आग की तरह हैं  जिधर जावें दहकते जावें...

आज जो भी आवे है नज़दीक ही बैठे हैं तेरे...
हम कहाँ तक तेरे पहरे  से सरकते जावें...

बात अब वो है की बेवजह खफा हो के हसन...
यार जावे तो फिरग होश खिसकते जावें...


मीर हसन !!!

दिल मगर कम किसी से मिलता है...

आदमी आदमी से मिलता है...
दिल मगर कम किसी से मिलता है..

आज क्या बात है की फूलों का
रंग तेरी हंसी से मिलता है...

भूल जाता हूँ में सितम उसके...
वो कुछ इस सादगी से मिलता है...

मिल के भी जो नहीं मिलता...
टूट कर दिल उसी से मिलता है...

आदमी आदमी से मिलता है...

दिल मगर कम किसी से मिलता है..


जिगर मुरादाबादी !!!

ये इश्क नहीं आसान बस इतना समझ लीजे...

एक लफ्ज़ मोहब्बत का अदना ये फ़साना है...
सिमटे तो दिल-इ-आशिक फैले तो ज़माना है...

आँखों में नमी सी है चुप चुप से वो बैठे हैं...
नाज़ुक सी निगाहों में नाज़ुक सा फ़साना है...

ये इश्क नहीं आसान बस इतना समझ लीजे...
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है...

दिल संग-ए-मलामत का हर चन्द निशाना है...
दिल फिर भी मेरा दिल है दिल ही तो जमाना है...

आंसू तो बहुत से हैं आँखों में जिगर लेकिन...
गिर जाए वो मोती है रह जाए सो  दाना है...

जिगर मुरादाबादी !!!

Monday, December 5, 2011

जिंदगी से यही गिला है मुझे !!!

जिंदगी से यही गिला है मुझे...
कि तू बड़ी देर से मिला है मुझे...
हमसफ़र चाहिए हुजूम नहीं...
एक मुसाफिर ही काफिला है मुझे...
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल...
हार जाने का हौसला है मुझे...

अहमद फ़राज़ !!!

मैं क्या दो रोज का मेहमान तेरे शहर में था ...

मैं क्या दो रोज का मेहमान तेरे शहर में था ...
अब चला हूँ तो कोई फैसल कर भी न सकूं...
जिंदगी की ये घडी टूटता पुल हो जैसे...
ठहर भी न सकूं और गुज़र भी न सकूं...

अहमद फ़राज़ !!!

Saturday, December 3, 2011

किस तरह से रोये... !!!

तुम से बिछुड़ के हम  किस किस तरह से रोये...
लोग समझ ना पाए इसलिए  हँसते हुए  रोये...

कोई सुन न पाए मेरे दर्द तेरे शहर के कूंचे पे...
दूर किसी खंडहर की दीवार से लग कर रोये...

मुझको मालूम था सब रोने का सबब पूछेंगे...
अपनों से कहीं दूर हम तन्हाई से लिपट कर रोये...

याद आती रही रुलाती रही होश में हमको...
मयखाने में बेसुध होकर रात भर नशे में रोये...

तुम से बिछुड़ के हम किस किस तरह से रोये...
लोग समझ ना पाए इसलिए हँसते हुए रोये...


भावार्थ... 

मुझे तुम क्या कहते हो !!!

ये अलफ़ाज़ ये शेर या फिर जिनको तुम ग़ज़ल कहते हो..
मुझे नहीं मालूम इनको और तुम क्या क्या कहते हो...

मेरे आंसू, मेरी तन्हाई , मेरा दर्द लिए ये हर्फ़...
बूँद बूँद ही है जिनको तुम समंदर कहते हो...

वो किताब, उसमें सुर्ख फूल और वो मोर के पंख  ...
नज़्म हैं मेरी जिनको तोहफा-इ-मोहब्बत कहते हैं...

वो खाब, वो खयाल, वो तेरा खुमार जिंदगी में ...
उनमान है मेरे के जिनको तुम तसव्वुर कहते हो...

वो खुशबू, वो रंग, वो नशा जो बिखरा सा हुआ है...
स्याही है मेरी जिनको तुम सुरूर-ए-ग़ज़ल कहते हो...

ये नजाकत, ये हया, ये तेरी सादगी जो छुई है मैंने...
रूह-ए-शायरी है मेरी जिनको तुम अपनी अदा कहते हो...

एक तलाश, एक कैफियत, एक सोच जो तैरती रहती है...
मेरा जुनू है जिसको तुम मेरी राह-ए-मंजिल कहते हो...

ये आईना, ये परछाई, ये खुद सा होने का वहम...
मैं ही हूँ तुम में जिसे अक्स कहते हो, 'भावार्थ' कहते हो...

भावार्थ...

अहमद फ़राज़

अगरचे जोर हवाओं ने दाल रखा है...
मगर चराग ने लौ को संभाल रखा है...

भले दिनों का भरोसा क्या रहें न रहें...
सो मैंने रिश्ते-ए-गम को बहल रखा है...

हम ऐसे सादा दिलो को वो  दोस्त हों या खुदा...
सबने वादा-ए-पर्दा दाल रखा है..

फिजा में नशा ही नशा हवा में  रंग ही रंग...
ये किसने अपना पैराहन उछाल रखा है...

फ़राज़ इश्क की दुनिया तो खुबसूरत थी...
ये किसने फितना-इ- हिज्र-ओ-विसाल रखा है...


वहसते बढती गयीं हिज्र के आजार के साथ...
अब तो हम बात भी करते नहीं गम खार के साथ...

इसकदर खौफ है इस शहर की गलियों में की लोग...
चाक सुनते हैं तो लग जाते हैं दीवार के साथ...

हमको उस शहर में तामीर का सौदा है जाना...
जो दीवार में चुन देते हैं मेमार के साथ...

अहमद फ़राज़...

Friday, December 2, 2011

उससे बिछुड़ के में यूँ घर आया...

उससे बिछुड़ के में यूँ घर आया...
आँख रो पड़ी और गला भर आया...
कह तो दिया उसे आखरी अलविदा...
सोचता हूँ आखिर मैं क्या कर आया...
उसने रोकने की नाकाम कोशिश की...
मगर में उसके दर से बस बढ़ आया...
कब तक बहते हुए पानी को रोकता...
में उसी बहाव के संग दूर तक बह आया...
उससे बिछुड़ के मैं यु घर आया...
आखं रो पड़ी और गला भर आया...

भावार्थ...

मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...

मैं तेरे करीब आ कर अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...



मैं सेहरा-ए-खायिश और वो समन्दर है...
बुझाने को प्यास अपनी अब कहाँ जाऊं...


मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


सुना है अब खुदा की पत्थर सी आँखें हैं...
अपने चाक-ए-दिल दिखलाने अब कहाँ जाऊं...


मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


हर जर्रे में उसका वहम-ए-एहसास ...
उसका  दीदार करने को  कहाँ जाऊं...


मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


इस जिस्म में गढ़ा है नश्तर बेवफाई का...
उसके दर के सिवा मरने अब कहाँ जाऊं...

मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


मैं तेरे करीब आ कर अब कहाँ जाऊं...
मैं तो पतंगा हूँ दिए से दूर कहाँ जाऊं...


भावार्थ

Thursday, December 1, 2011

तुम हो !!!

जिस सिम्त भी देखूं नज़र आता है कि तुम हो...
ना जाने यहाँ कोई तुम सा  है कि तुम ही...

ये खाब है खुशबू है कि झोंका है कि पल है...
ये धुंध है बादल है कि साया है कि तुम हो...

देखो ये किसी और की आँखें है कि मेरी...
देखूं ये किसी और का चेहरा है कि तुम हो...

ये उम्र-ए-गुरेजा है कहीं ठहरे तो ये जानू...
हर सांस में मुझे  लगता है कि तुम हो..

एक दर्द का फैला हुआ सेहरा है कि में हूँ...
एक मौज में आया हुआ दरिया हूँ कि तुम हो...

ए जाने फ़राज़ इतनी भी तौफिक  किसे थी..
हमको गम-ए-हस्ती भी गवारा कि तुम हो...

अहमद फ़राज़ !!!