Saturday, November 21, 2015

खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ

इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ

दहलीज़ बनायीं घरों में फिर
बंद कर बैठे हैं दिल अपने
मज़हब का तेज़ाब छिड़क
झुलसा कर  बैठे हैं सपने
एक रंग के हम दिखने वाले
रंगों से बँटे हैं फिर जाने क्यों

इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ

सरहद खींचे मुल्क के तन पे
हर एक पडोसी है दुश्मन
उनको दिखाते अपने जलवे
पर इंसान ही मरते हैं पल छिन 
मिटटी से बने हम पुतले
तारों से बँटे हैं फिर जाने क्यों

इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ

है खाब एकसा है चाह एकसी 
इंसा के जेहेन में पलने वाली 
है दर्द एकसा है चीख एकसी 
मौत के उर से उठने वाली 
आईने के कर के टुकड़े फिर 
अक्स ये बँटे हैं फिर जाने क्यों 

इंसान जो खुद को कहते हैं
खूंटों से बंधे हैं फिर जाने क्योँ 


भावार्थ 
२२/११/२०१५ 

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